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क्या सही क्या ग़लत

सांस्कृतिक आयाम
सांस्कृतिक आयाम
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यह विषय शायद आपको राजनैतिक लगे पर विशेष सन्दर्भ में यह अत्यंत गंभीर है| यद्यपि इस मसले पर पहले भी बहुत कुछ लिखा-पढ़ा और सुना जा चूका है, वाद-विवाद हुए हैं, हायतौबा भी मची है पर फिर इसपर कुछ लिखने से खुद को रोक नहीं पाया या यूँ कहें कि अंदर का राष्ट्रवाद हिलोरें मारते-मारते एक शाब्दिक त्सुनामी के रूप में बाहर आ गया|
सरकारें आती-जाती रहती हैं और अपने हिसाब से नीतियों यथा – शैक्षिक, रक्षा, विदेश, सामाजिक आदि में परिवर्तन करती रहती हैं| लालूप्रसाद के समय में बिहार बोर्ड के की सेकेण्डरी स्तर की पाठ्य पुस्तक में उनके खुद के ऊपर एक पूरा पाठ था| मालूम नहीं मगर शायद नीतिश कुमार उसे अबतक हटवा ही चुके होंगे| वाजपेयी जी के शासनकाल में एन०सी०ई०आर०टी० के पाठ्यक्रम में भी कुछ बदलाव किये गए और कुछ धार्मिक महापुरुषों की जीवनियों और धार्मिक गाथाओं को भी उसमें सम्मिलित किया गया जिसे लेकर तत्कालीन विपक्ष यानि वर्तमान सत्तापक्ष के साथ तथाकथित सेकुलर दलों और वामदलों ने ज़बरदस्त हो-हल्ला मचाया और इसे नाम दिया का गया ‘शिक्षा का भगवाकरण’| तत्पश्चात यू०पी०ए० सरकार ने अपने प्रथम शासन में एन०सी०ई०आर०टी० के पाठ्यक्रम में अपने हिसाब से बदलाव करवाए जो कहीं-कहीं इतने अस्वीकार्य लगते हैं कि संशोधकों की सोच पर तरस आता है| न ही ये बदलाव स्वीकार करने लायक हैं न ही किसी प्रकार से समाज का भला करने वाले हैं| इसके उलट, ये विद्वेष फ़ैलाने का माध्यम नज़र आते हैं| उदाहरणार्थ – प्राथमिक स्तर के बच्चों को अयोध्या और गोधरा के दंगों और आपदाओं के बारे में पढ़ाना कहाँ तक सही है, इसका उन बच्चों के कोमल और संवेदनशील हृदय पर क्या प्रभाव पड़ेगा? खुदीराम बोस, गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक को ‘अतिवादी’ और ‘आतंकवादी’ जैसी संज्ञाओं से नवाज़ा जाता है| यह न्यायसंगत है या फिर दुराग्रह? महान संत मीराबाई जिन्होंने मध्यकाल में सारे समाज को भक्ति के रंग में रंग दिया था उन्हें एक तुच्छ ‘नाचनेवाली’ बताया जाता है| हमारे प्राचीन, पूज्यनीय एवं आदरणीय ऐतिहासिक ग्रंथों यथा – रामायण, महाभारत आदि को सिर्फ एक पुरानी कपोल कथा का दर्ज़ा प्रदान किया जाता है| ‘कृष्ण’ को उद्दंड, उच्छश्रृंखल कामपिपासु कहा गया है जो गोपियों के साथ रमण करते थे| यह सब क्या है? हम किस दिशा की तरफ बढ़ रहे हैं| क्या यही वह तरीका है जो हमें एक विकसित धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का स्थान दिलाएगा? क्या यह सिर्फ एक वोट बैंक के तुष्टिकरण की राजनीति नहीं है?
हमारे नेताओं ने सर्वकालिक सबसे पारदर्शी और प्रासंगिक कानून पारित किया जिसे हम ‘सूचना का अधिकार’ के नाम से जानते हैं| और जब उन्होंने खुद को उसके शिकंजे में फंसता पाया तो उसमें संशोधन करके कुछ विशेष सूचनाओं को इसके दायरे से बाहर कर दिया| ‘ऑफिस ऑफ प्रोफिट’ बिल को तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा किये गए संशोधन के आग्रह को दरकिनार कर संसद ने दो-दो बार पूर्ण बहुमत से पास कर दिया| उच्च शिक्षा में आरक्षण संविधान के विरुद्ध वोट बैंक के लिए तुष्टिकरण की नीति का एक और ज्वलंत उदाहरण हैं| इससे न केवल मानक स्तर ही प्रभावित होगा अपितु देश की छवि पर भी एक नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा| यह केवल उनके लिए होना चाहिए जो प्रतिभाशाली होते हुए भी आर्थिक रूप से अशक्त अथवा पिछड़े हुए हैं न कि किसी जाति पंथ या संप्रदाय विशेष के लिए|
कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने यह निर्णय लिया था कि ‘वंदे मातरम’ को ‘राष्ट्र गीत’ के रूप में अपनाने की सौवीं वर्षगांठ पर इसे अनिवार्य रूप से हर विद्यालय में गवाया जायेगा परन्तु इसका एक धर्म विशेष के कुछ लोगों द्वारा सशक्त विरोध किया गया ताकि धार्मिक भावनाओं को भड़का कर उन्माद फैलाया जा सके| यह तो हद ही हो गई| यह वही गीत है जिसने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अनेक राष्ट्रभक्तों को एकता के सूत्र में बांध रखा था| इसका महत्त्व भी हमारे राष्ट्र गान ‘जन-गण-मन’ से कम नहीं आँका जा सकता| ‘मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड’ के तत्कालीन अध्यक्ष ने इसका विरोध यह कहकर किया कि यह शरियत के कानून के खिलाफ़ है| पर मेरी दृष्टि में कोई भी धर्म अथवा कानून राष्ट्र और राष्ट्रीय एकता से ऊपर नहीं है| यदि यह शरियत के खिलाफ़ है तो कुछ उदाहरण देखें – सउदी अरब के राष्ट्र गीत में रेगिस्तान की खूबसूरती का वर्णन किया गया है| नखलिस्तान को रेगिस्तान में ‘अंगूठी के नगीने’ की संज्ञा दी गई है| यमन के राष्ट्र गीत में झरनों को ‘माँ के वक्षस्थल से झरते दूध’ की संज्ञा दी गई है – हे सारी धरा की माँ, तेरे बच्चे कृतार्थ हैं’| मिस्र का राष्ट्र गीत भी इससे जुदा नहीं है| इसी प्रकार की बातें बांग्लादेश के राष्ट्र गीत में भी कही गई हैं| यहाँ तक की पाकिस्तान के राष्ट्र गीत में भी (जिसे तीन-तीन बार रचा गया है) में ‘धरती’ और ‘नदियों’ का वर्णन किया गया है| जोर्डन का राष्ट्र गीत अपने वतन को ‘अस्सलाम-अल-मालिकी’ कह कर उसका नमन करता है| यह सभी अपने देश और अपनी धरती की पूजा करते हैं| तो क्या ये लोग काफ़िर हो गए? जबकि यह सब तो विशुद्ध रूप से इस्लामिक गणतंत्र के रूप में प्रतिष्ठित हैं| पर वंदे मातरम के विरोधी कहते हैं के सिर्फ ‘अल्लाह की इबादत’ की जानी चाहिए| तो किस बिना पर इन मुस्लिम देशों ने इस तरह के गीतों को राष्ट्र गीत के रूप में स्वीकार कर लिया जहाँ वतन और उसकी सरज़मीं की इबादत की गई है| इसका इस प्रकार से इतना विरोध क्यों किया जा रहा है?
हर कोई जाति, धर्म, क्षेत्र, प्रान्त आदि के बारे में सोचता है पर देश के विषय में नहीं जो इन सबको अपनेआप में समाहित किये हुए है और जिसके बिना हमारी कोई पहचान नहीं हो सकती| बस हो गया? क्या ये चीज़ें राष्ट्रवाद, देशभक्ति और भारतीयता से बढ़ कर और अहम हैं? इन सबके अलावा और बहुत से प्रश्न हैं जिन्हें उठाया जाना चाहिए पर मैंने उन्हें नहीं छुआ ताकि यह आलेख अत्यधिक बोझिल न हो जाये| लेकिन, बहुत से उत्तरित-अनुत्तरित प्रश्नों के होने के बावजूद, इन सभी का एक ही उत्तर है और हमें उसे भारतीय होने के नाते ढूँढना होगा|

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