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गंगा : राष्ट्रीय नदी पर राष्ट्रीय शर्म

सांस्कृतिक आयाम
सांस्कृतिक आयाम
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हज़ारों वर्षों पूर्व प्रस्फुटित भारतीय संस्कृति ने बदलते समय के साथ अनेक बदलावों को आत्मसात किया है, अनेक बाह्य संस्कृतियों के साथ वक्त-वक्त पर हुई पारस्परिक क्रियाओं के माध्यम से नए संस्कारों को अंगीकार किया है| पर उसके मूल स्वभाव और प्रवृत्ति को रंचमात्र भी क्षति नहीं पहुंची| मूल स्वभाव से तात्पर्य है ‘समस्त विश्व को अपना परिवार-कुटुंब मान कर चलना’, और इसीलिए निःस्वार्थ रूप से सबके कल्याण की कामना करना तथा उसके लिए प्रयास करना| अगर हम संपूर्ण विश्व की बात करें तो उसमें मनुष्य के साथ-साथ समस्त चराचर जगत यथा – मुख़्तलिफ़ तहज़ीबें, प्राणी जगत एवं प्राकृतिक धरोहरें भी शामिल होंगे|
माना के इंसान ने ग़ैरत और खु़द्दारी का चोला उतार फेंका है और खु़दगर्ज़ी का चश्मा आँखों पर चढ़ा लिया है जिसे सच को दिखाने से परहेज़ है और अगर सच दिखा भी तो उसे अनदेखा कर देने की आदत| मगर इसका ये मतलब हरगिज़ नहीं के खु़द के सिवा कुछ नज़र ही न आये| चलो, इंसान खु़दगर्ज़ ही सही पर उनका क्या जो बेगर्ज़ बरसों-बरस से बिना कुछ चाहे-मांगे हमारी ज़रूरतों को पूरा करते आ रहे हैं और जिनके बग़ैर ज़िंदगी की कल्पना करना भी बेमानी है| क्या उनके लिए हमारी कोई ज़िम्मेदारी या जवाबदेही नहीं है, वो भी तब जब वह कोई इंसान नहीं|
यहाँ बात हो रही है हमारी राष्ट्रीय नदी गंगा की| कभी कबीरदास ने कहा था “बृच्छ न कबहूँ फल भखै, नदी न संचै नीर; परमारथ के काज को साधुन धरा सरीर|” गंगा हज़ारों वर्षों से अजस्रा-अविरला का रूप धरे हम तुच्छ मानवों के लिए जीवनदात्री की भूमिका का निःस्वार्थ भाव से निर्वाह किये जा रही हैं| इसके बदले उन्हें हमसे कुछ भी अपेक्षित नहीं था मगर हाय ये इंसानी फ़ितरत, जिसने उन्हें कुछ दिया तो नहीं क्यूंकि उन्हें हमसे कुछ चाहिए ही नहीं था बल्के जो कुछ उनके पास था उसे भी उनसे आहिस्ता-आहिस्ता छीन लिया| बेशर्म हिंदुस्तानियों ने अपनी ही माँ का चीर-हरण कर लिया|
गंगा मात्र एक नदी नहीं अपितु भारतीय जनमानस की आस्था, आध्यात्मिकता की प्रतीक भी हैं| भारतीय संस्कृति के उद्भव की गाथा से लेकर आज तक घटित हुए सभी बदलावों की असंख्य वर्षों से साक्षी रही हैं गंगा| देवीस्वरूपा माँ गंगा के साथ किये गए हम इंसानों के कुत्सित-भत्सर्नीय आचरण ने उन्हें एक ऐसे मुक़ाम पर पहुंचा दिया है जहाँ जीवनदायिनी गंगा स्वयं विलुप्तता के भावी दंश से छटपटा रही हैं, संघर्ष कर रही हैं| समस्त भारत की बहुसंख्य जनता के जीवन के अभिन्न अंग के रूप में गंगा जन्म, विवाहादि से लेकर मृत्युपर्यंत सभी प्रमुख संस्कारों से जुड़ी हुई हैं| यहाँ तक कि देहावसान के पश्चात भी पितरों की अतृप्त आत्माओं को इन्हीं के माध्यम से तर्पण-अर्पण किया जाता है| शिव-विष्णु के बीच की कड़ी हैं गंगा| हमारे खेतों की सिंचाई से लेकर भूमिगत जलस्तर तथा उर्वरता बनाये रखना, हमें दाना-पानी से लेकर यातायात तक मुहैया कराना व हमारे इहलोक से लेकर परलोक तक की सुधि लेकर उसे सुधारने का सारा बोझ अनगिनत बरसों से इन्हीं पुण्यसलिला के पावन कन्धों पर रहा है| भागीरथी, अलकनंदा, मन्दाकिनी, जान्ह्वी आदि अनेक नामों से जानी जाने वाली गंगा आज अपने खु़द के अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं| भगीरथ के पुरखों को तारने से शुरू इनका ये तवील सफ़र आज तक अनवरत जारी है और अगर हम चाहेंगे तो हमेशा जारी रहेगा| आज फिर गंगा को किसी भगीरथ की आवश्यकता है, फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि तब भगीरथ के पुरखों के लिए अवतरित हुईं गंगा आज खु़द को तारे जाने के लिए टकटकी लगाये मरणासन्न सी हमारी तरफ़ देख रही हैं| हम सब को अपने अंदर सोए हुए भगीरथ को जगाना होगा, बाहर लाना होगा अन्यथा विगत सहस्रों वर्षों का इतिहास अपने-आप में समेटे हुए गंगा खु़द तवारीख़ के पन्नों में सिमट कर रह जाएँगी, खु़द इतिहास बन कर रह जाएँगी|
यदि आंकड़ों में बात करें तो गंगा की तुलना में दुनिया की कोई भी नदी नहीं ठहर सकती| ख़ास तौर पर उनके द्वारा पोषित आबादी के मुआमले में| देवी गंगा उत्तराखण्ड राज्य में हिमालय स्थित गंगोत्री-गोमुख ग्लेशियर, जो समुद्र से क़रीब ४,१०० मीटर ऊँचा है, से प्रद्भूत होकर अनेक छोटे-बड़े शहरों से होते हुए तक़रीबन २,५०० कि०मी० की यात्रा करके सुंदरबन डेल्टा बनाते हुए बंगाल की खाड़ी में विलीन हो जाती हैं| अपनी इस महायात्रा में वह ५ राज्यों के ५० से भी ज़्यादा बड़े शहरों और अनेक छोटे कस्बों के लगभग २० करोड़ से भी ज़्यादा लोगो को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पोषित करती हैं| एक अनुमान के अनुसार रोज़ाना लगभग २५ से ३० लाख लोग गंगा में स्नान करते हैं| इनके मार्ग का सबसे बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश से होकर गुज़रता है और यहीं पर इनकी स्थिति सबसे दयनीय भी है| रोज़ाना करोड़ों-करोड़ लीटर अवजल-मलजल सैकड़ों छोटे-बड़े नालों द्वारा इनमें आकर मिलता है और इनकी शुद्धिकरण की निःसंदेह क्षमता को कमज़ोर करता जाता है| वेदों में भी कहा गया है कि गंगा के स्मरण और दर्शन मात्र से समस्त पाप धुल जाते हैं फिर उनका आचमन करने और उनमें स्नान करना तो हज़ारों तीर्थ करने के बराबर है| लेकिन आज उनकी ये स्थिति है कि हरिद्वार के बाद से उनकी गुणवत्ता प्रभावित होनी शुरू हो जाती है और उत्तर प्रदेश में प्रवेश करने के बाद तो उनका जल आचमन योग्य भी नहीं रह जाता|
अब बात करें सरकारों, नेताओं और स्वयं जनता की| १९८६ में प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने वाराणसी से गंगा एक्शन प्लान के प्रथम चरण की शुरुआत की| उसके बाद द्वितीय चरण भी प्रारंभ हुआ मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात| इसी दरमियान प्लान का बजट कई गुना बढ़ गया, हज़ारों-हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च हो गए बल्कि यूँ कहें कि गंगा में बहा दिए गए| सरकारें सोई रहीं, और गंगा तड़पती-बिलखती रहीं अपने हाल पर| इलाहाबाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की बारम्बार फटकार का भी उनपर कोई असर नहीं हुआ| केवल कुम्भ और माघ मेलों के समय न्यायालयों के निर्देश पर चंद बांधों से कुछेक क्यूसेक पानी छोड़ दिया जाता है जो कि किसी भी दृष्टि से अपर्याप्त है| काग़ज़ो पर काम होता रहा और हम सब भी मूक दर्शक बने सबकुछ देखते रहे| वाराणसी के वर्तमान सांसद के केन्द्रीय मंत्रित्वकाल में टिहरी में विशालकाय बांध तैयार हुआ और अपने उद्भव के बाद से प्रथम बार गंगा का अविरल-अजस्र प्रवाह बाधित किया गया| आज पूछने पर वह कहते हैं कि इस बाँध की परियोजना तो १९७० में ही मूर्त रूप ले चुकी थी सिर्फ़ उसका क्रियान्वन हमारे द्वारा किया गया| क्या वे इसे रोक अथवा इसमें फेरबदल नहीं कर सकते थे? और तो और उनसे पहले २००४ से २००९ तक वाराणसी के सांसद रहे सज्जन अपनी ही पीठ थपथपाते नहीं थकते कि उन्होंने सीधा हस्तक्षेप करके प्रधानमंत्री द्वारा गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करवाया और प्रधानमंत्री के द्वारा एक गंगा बेसिन संरक्षण अधिकरण का भी गठन हुआ| क्या इतने से ही उनके कर्तव्यों की इतिश्री हो गई? क्या राष्ट्रीय नदी घोषित हो जाने मात्र से गंगा का जल फिर से पहले जैसा शुद्ध हो जायेगा और उनका अस्तित्व आने वाले कई वर्षों के लिए सुरक्षित हो जायेगा? कोई सवाल ही नहीं उठता| ये मुमकिन ही नहीं| समय-समय पर संत समाज द्वारा भी अन्य धर्मों के रहनुमाओं के साथ मिलकर कई तरह की घोषणाएँ की गयीं, अभी हाल ही में तथाकथित गंगापुत्रों द्वारा गंगायात्रा आयोजित की गयी जो उन्हीं के द्वारा होते हुए अनेक छोटे बड़े शहरों में गयी, श्रमदान किया और कार्यशालाएं आयोजित कीं| सिर्फ़ इतने से ही काम नहीं होने वाला|आज मुझे हमारी राष्ट्रीय नदी की परिस्थिति पर शर्म आती है जिसे मैं राष्ट्रीय शर्म का नाम दूंगा|
चलिए एक नज़र डालते हैं कुछेक रास्तों पर जो हम जैसे आमलोग अपना सकते हैं और माता गंगा के संरक्षण में अपना भी कुछ योगदान कर सकते हैं| लोग घरों-मंदिरों में चढ़ाये गए फूलमाला इत्यादि बड़ी ही श्रद्धा के साथ और ध्यानपूर्वक पोलीथीन की थैलियों में भर कर गंगा में विसर्जित करके हाथ जोड़ते हैं| वहीं घाट किनारे बैठा मैं उनकी मूढ़मति को कोसता रह जाता हूँ कि वाह रे धर्मपारायण लोग| अपने पाप धोने के लिए गंगा को मैला कर रहे हो| अब तो बख़्श दो उन्हें| पशुपालक अपने मवेशियों को ले आकर गंगा में ही नहलाते हैं| अनेक लोग उन्हीं के किनारों को शौचालय के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं| ज़्यादातर लोग तो स्नान करते हुए साबुन, शैम्पू, डिटर्जेंट जैसे केमिकलयुक्त पदार्थों का उपयोग करते हैं जो की इनके प्रदूषित होने के प्रमुख कारणों में से एक है| इन सब क्रियाकलापों पर रोक लगा कर हम अपने स्तर से तो कुछ तो रोक लगा ही सकते हैं उनके प्रदूषण पर| हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी लिखा हुआ है कि, “स्वतः वाहिनी शुद्धयते,” अर्थात यदि उनके मूल प्रवाह को बने रहने दिया जाये तो अपनी अधिकतर गंदगी को वे स्वयं ही साफ़ कर लेंगी और जो बाक़ी बचेगा वो काम हमारे ज़िम्मे रह जायेगा| आज उनके ऊपर बने अनेकानेक बांधों ने उनके प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया है और उनके अंदर जो जल बचा हुआ है वो गंगाजल नहीं अपितु विशुद्ध रूप से नालों का गंदला पानी और फैक्टरियों से निकला हुआ हानिकारक कचरा है| एक रास्ता ये भी हो सकता है कि उनके प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए टिहरी बांध के ठीक पहले से एक वैकल्पिक मार्ग पहाड़ों को खोद कर उनकी निकासी के लिए बनाया जाये| जिससे उनका प्रवाह फिर यथावत हो जाये| जब बाँध के निर्माण पर हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च हो सकते हैं तो उनके मूलस्वरूप को लौटाने का प्रयास करने में उसका कुछ हिस्सा तो लगाया ही जा सकता है और यक़ीनन ये एक अच्छी शुरुआत होगी| आज हमारे देश में सिर्फ़ गंगा ही नहीं अपितु उनकी सहायक अन्य नदियों यथा – यमुना, गोमती, सरयू आदि का भी कमोबेश यही हाल है| शुभारंभ माँ गंगा से होकर उसका लाभ अन्य सभी तक भी पहुँचाया जाना चाहिए| दृढ़ संकल्प और अदम्य इच्छाशक्ति के बल पर यह अति दुष्कर कार्य भी साध्य है| और हम सब की यही इच्छा और कामना है कि ऐसा ही हो| अतीत के गौरव को वर्तमान में संजोते हुए एक सुनहरे भविष्य की आशा में ….

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