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वाराणसी : एक अखिल भारतीय नगर

सांस्कृतिक आयाम
सांस्कृतिक आयाम
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काश्याः सर्वा निःसृता सृष्टिकाले
काश्यामन्तः स्थिति काले वसन्ति|
काश्यां लीनाः सर्वसंहारकाले
ज्ञातव्यास्ताः मुक्तपुर्यो भवन्ति||

“सृष्टि काल में सभी तीर्थ एवं पवित्र क्षेत्र काशी से ही उद्भूत होते हैं और प्रलय के काल में उसमें ही लीन हो जाते हैं| इतना ही नहीं, काशी में ही इनका निरंतर वास माना जाता है और इनकी अपनी-अपनी ऋतु यात्रायें भी होती हैं|” एक जीवंत नगर के रूप में काशी या वाराणसी की महत्ता का इससे अच्छा उदाहरण देना असंभव तो नहीं पर दुष्कर अवश्य है| उपर्युक्त श्लोक काशी के अखिल भारतीय स्वरुप को प्रतिपादित करता है| देश भर में फैले संस्कृति, धर्म, जीवनशैली, रंग-रूप, जाति-धर्म, बोली-भाषा आदि के विविध प्रकार वाराणसी में एक समग्र-सकल रूप धारण कर लेते हैं| यह भारत के ‘अनेकता में एकता’ के विशेषण का एक साक्षात् उदाहरण है| वाराणसी की उसकी सम्पूर्णता में व्याख्या करना किसी एक शब्द, वाक्य, छंद, पृष्ठ, पुस्तक, श्रृंखला या जीवनकाल में संभव नहीं है|ठीक उसी प्रकार जैसे कि काशी में ही जन्म लेकर शतायु प्राप्त करने वाले महान यायावर भी काशी की असंख्य घुमावदार वीथियों में से हर एक का साक्षात्कार नहीं कर पाते| जैसा कि माननीय केदारनाथ सिंह जी ने अपनी कविता में काशी के रूप का चित्रण किया है, “अद्भुत है इसकी बनावट, यह आधा जल में है, आधा मन्त्र में, आधा फूल में है, आधा शव में, आधा नींद में है, आधा शंख में, अगर ध्यान से देखो तो यह आधा है आधा नहीं है|” प्रकाश की खोज में निरंतर लीन देश [भारत = भा(प्रकाश) + रत(लीन)] की यह प्रकाशित-ज्योतित करने वाली अद्भुत नगरी काशी (काश = ज्योतित करना) है| प्रकाश की नगरी, मोक्षदायिनी, जित्वरी (जीत देने वाली), आनंद-कानन, महाश्मशान, त्रैलोक्यन्यारी, वाराणसी, बनारस, घाटों व मंदिरों का शहर आदि जैसे अनेकानेक संज्ञाओं और विशेषणों से अलंकृत इस चमत्कृत कर देने वाले नगर का मर्म समझने के लिए इसका ही एक अंग बनना पड़ता है, इसे अपने अंदर जीना पड़ता है| इसे समझना संभव है पर इसे जान लेना नहीं| इसे शब्दों में व्यक्त करना सूर्य को दिया दिखाने जैसा है| इसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है| एक बार काशी से दूर रहते हुए मेरी व्यथा निम्न पंक्तियाँ बखूबी बयां करती हैं – सपनों में आकर सताने लगा है, नीदों से मुझको जगाने लगा है; कोई याद आये न आये मुझे, बनारस बहुत याद आने लगा है: काशी से काशीवासियों का आत्मिक जुड़ाव भी इस नगर की जीवन्तता का एक प्रमुख कारक है (मेरे ब्लॉग का पता भी https://www.jagran.com/blogs/kashiwasi है)| शताब्दियों से देश-विदेश से अनेक यात्री और यायावर यहाँ आते रहे हैं और इसपर मुग्ध होते रहे हैं| फ़ाह्यान, ह्वेनसांग, संत ज्ञानेश्वर, गौतम बुद्ध, गुरुनानक, चैतन्य महाप्रभु, तुलसीदास, रैल्फ़, फिर्च, तावेर्निये, फ्रांसुआ बर्नी, जेम्स प्रिंसेप, मिर्ज़ा ग़ालिब आदि जैसे नामों से भरी ये फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है| इनमें से बहुत से लोग तो बनारस पर इस क़दर फ़िदा हुए कि हमेशा के लिए यहीं के होकर रह गए| काशी में तो ‘सात वार, तेरह त्यौहार’ हैं| काशी नित्योत्सवा, निरंतर, चिर है; शाश्वत है, सनातन है| इसे समझना मुमकिन है, बयां करना मुश्किल| जो भी यहाँ जिसकी खोज में आया, उसने वो पाया कोई ख़ाली हाथ नहीं लौटा|
काशी या वाराणसी के एक ‘अखिल भारतीय’ नगर होने के कई आयाम हैं| धार्मिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, हर तरह से| हिंदू धर्म में चार धाम व सप्तपुरियों का उल्लेख है| इन्हें पवित्रतम स्थानों का दर्ज़ा प्राप्त है| बद्रीनाथ, जगन्नाथ, द्वारिका व रामेश्वरम चार दिशाओं में स्थित चार धाम हैं| सप्तपुरियों में अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, उज्जैन, द्वारिका व कांची हैं| यह सब काशी में उपस्थित हैं| प्रयाग, कामाख्या, मानसरोवर, पशुपतिनाथ, नर्मदा, गोदावरी, क्षिप्रा, पुष्कर, वैद्यनाथ, केदारनाथ इत्यादि तीर्थ भी यहाँ उपस्थित हैं| यहाँ द्वादश ज्योतिर्लिंग भी अवस्थित हैं| काशी में यमराज का आगमन निषिद्ध है| यहाँ के प्राणियों की जीवन-मृत्यु का हिसाब काशी के कोतवाल के रूप में नियुक्त ‘कालभैरव’ रखते हैं| विभिन्न देवी-देवता यहाँ की आठ दिशाओं के रक्षक हैं| काशी शंकर के त्रिशूल पर टिकी है| प्रलयकाल में भी यह नष्ट नहीं होती| काशी की विलक्षणता का एक प्रमुख उदाहरण है – सारे संसार के नगरों में लोग जीने, खाने, कमाने की ललक लेकर प्रवास करते हैं पर काशी ही एकमात्र नगर है जहाँ लोग मृत्यु व मोक्ष की कामना लेकर आते हैं|
भारत के अन्य शहरों की तुलना में वाराणसी में एक अनोखापन है| यहाँ की चारित्रिक और पारंपरिक भिन्नता हर उस व्यक्ति को द्रष्टव्य हो सकती है जिसने यहाँ के सकारात्मक और श्रद्धा से परिपूर्ण दैनिक जीवन को देखा हो और यहाँ के इतिहास की कुछ जानकारी रखता हो| और तभी यहाँ के अनोखे विरोधाभासी समाचरण को जाना जा सकता है| देश-विदेश के अनेक लोगों ने काशी की महिमा का अपने शब्दों में बखान और गुणगान किया है| ग़ालिब ने अभिभूत हो कर कहा –


तआल्लोलाह बनारस चश्मेबद्दूर
बहिश्ते खुर्रमो फ़िरदौसे मामूर
इबादतखानाए नाकूसियाँ अस्त
हमाना काबए हिन्दोस्तां अस्त


बनारस बहुत खूबसूरत है, अल्लाह इसे बुरी नज़र से बचाए| यह धरती का स्वर्ग है, मंदिरों और शंख बजानेवालों का शहर है| ये हिंदुस्तान का काबा है| लन्दन मिशनरी सोसाईटी के एम० ए० शेरिंग, जिन्होंने यहाँ कई साल गुज़ारे थे, ने कहा – “बनारस न केवल अपनी श्रद्धेय आयु के कारण बल्के अपनी सजीवता और ओज के कारण भी उल्लेखनीय है| इसका सूर्य कभी अस्त नहीं हुआ|”
वाराणसी के अनोखेपन में एक अक्खड़ी, फक्कड़ी, अलमस्त जीवनशैली का अप्रतिम योगदान है| शंकर की नगरी के निवासी भी उन्हीं की तरह अड़भंगी और अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं| यही स्वभाव यहाँ हर वस्तु, हर व्यक्ति में परिलक्षित होता है| गोमुख से गंगासागर तक की अपनी महायात्रा में गंगा पूर्ववाहिनी ही हैं पर काशी में नियम तोड़ कर वह भी उत्तरवाहिनी हो जाती हैं| काशी का हज़ारों वर्ष पुराना इतिहास इसका मूक साक्षी है| यहाँ भारत के लगभग सभी राज्यों के निवासी वास करते हैं| इतना ही नहीं विश्व भर के देशों यथा – अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, अफ्रीका, स्पेन, इटली, फ्रांस, जर्मनी , रूस, जापान, चीन, कोरिया, थाईलैंड, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों के पर्यटक यहाँ दिख जायेंगे जिनमें से कुछ तो स्थाई रूप से यहीं के होकर रह गए हैं व अन्य का यहाँ आना-जाना लगा रहता है| वाराणसी की यह अनवरत निरंतरता जाने कितने वर्षों से लेकर आजतक निर्बाध चली आ रही है| हिंदुओं के साथ काशी बौद्धों और जैनों के लिए भी पूज्यनीय है| गौतम बुद्ध ने यहीं (सारनाथ) से ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ किया| कई जैन तीर्थंकरों की जन्म और कर्म भूमि भी रहा है काशी| यह सब बातें वाराणसी को अखिल भारतीय स्वरुप ही नहीं अपितु ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की हमारी सनातन परंपरा को चरितार्थ करता हुआ वैश्विक स्वरुप प्रदान करती हैं|
भौगोलिक दृष्टि से भी वाराणसी एक अति महत्वपूर्ण नगर है| अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण काशी प्राचीन काल से ही एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र रही है| उस समय परिवहन के समुचित साधन न होने के कारण नदी मार्ग सर्वोत्तम माना जाता था| यहाँ व्यापार करना, कारोबार में शर्तिया सफलता का सूचक था और इसी कारण से इसक एक नाम ‘जित्वरी’ भी व्यापारी वर्ग के बीच प्रचलित था| भले ही आज काशी को सम्मिश्र भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधि ऐतिहासिक नगर माना जाता है परन्तु इसके उद्भव और विकास के पीछे इसकी व्यापारिक व भौगोलिक स्थिति का महत्वपूर्ण योगदान है| गंगा के उत्तरी तट पर प्राकृतिक रूप से बाढ़ रोधी धरती पर बसे इस नगर के विकास में नदी मार्ग ने अहम किरदार अदा किया है| विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ वेदों के साथ-साथ पुराणों, बौद्ध साहित्य व जैन साहित्य में भी काशी का अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है| व्यापारिक उद्भव के कारण धीरे-धीरे अनेक क्षेत्र के लोग स्थायी रूप से यहीं बस गए होंगे और वाराणसी की सम्मिश्र संस्कृति की आधारशिला पड़ी होगी|
वाराणसी जीवन के विविध आयामों का संतुलित संगम है| धर्म, विद्या, कला और व्यापार के केन्द्र के रूप में विख्यात इस नगर की बहुआयामी एवं अद्वितीय संस्कृति का वर्णन किये बिना इसके बारे में कही गई कोई भी बात अधूरी रहेगी| जीवन के ललित पक्ष यथा – संगीत, कला, हस्तशिल्प, वस्त्र, खान-पान, रहन-सहन इत्यादि ने वाराणसी की छवि को रंगीला और आभा से ओत-प्रोत बना दिया है| विश्व में शायद ही कोई और ऐसा नगर होगा जहाँ संस्कृति के इतने विविध, बहुरंगी और अचंभित कर देने वाले आयाम दिख सकें| संगीत, कला व खानपान के इस महासंगम पर कुछ चर्चा करना नितांत आवश्यक हो जाता है| संस्कृति के हर पक्ष में वाराणसी ने अपनी खुद की एक विशिष्ट शैली ईजाद की है जिसके साथ ‘बनारसी’ विशेषण लग जाता है| संगीत घराने, कला शैली या अन्य सामान्य वस्तुएँ ‘बनारसी’ विशेषण जुड़ते ही विशिष्ट हो जाती हैं जैसे – बनारसी पान, बनारसी साड़ी, बनारसी मिठाई आदि|
समय-समय पर हर क्षेत्र से जुडी महान हस्तियां बनारस में जन्म लेकर कृतार्थ हुईं और विश्व को नतमस्तक कर वाराणसी का परचम लहराया है| चाहे साहित्य क्षेत्र के आधुनिक हिंदी के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र, छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी व रामचंद्र शुक्ल हों या फिर संगीत क्षेत्र के पंडित जगदीप, पंडित रामसहाय, सिद्धेश्वरी देवी, कंठे महाराज, किशन महाराज और गिरिजा देवी हों, सभी ने वाराणसी की सर्वोत्कृष्टता को नित नई पराकाष्ठा तक पहुँचाया है| मध्यकाल में तुलसीदास व मेधा भगत जैसे अनन्य भागवत रहे हों या फिर कबीर, रैदास जैसे सामाजिक चेतनासंपन्न कवि, तैलंग स्वामी हों या बाबा कीनाराम| यहाँ के पण्डे-गुण्डे, ठग, रईस आदि सब प्रसिद्द रहे हैं| रांड़-सांड़-सीढ़ी-सन्यासी से लेकर बनारस के ‘खर कचौड़ी-तर जलेबी’, रबड़ी-मलाई, मगदल, मलइयो और पान तक सभी प्रख्यात हैं| यहाँ की काष्ठकला, पीतल उद्योग, हाथी दांत की कलाकारी और बनारसी साड़ी का तो कोई जवाब ही नहीं| तबलावादन की ‘बनारसबाज़’ शैली से आज सम्पूर्ण विश्व के संगीत प्रेमी परिचित हैं| पण्डित रामसहाय द्वारा प्रवर्तित यह शैली अपने अनूठे परन, लहरा, छंद और प्रकरण के लिए विश्वविख्यात है| इसके अतिरिक्त ठुमरी, दादरा, ख्याल, टप्पा, ध्रुपद, धमार, कजरी, चैती, होरी इत्यादि गायन शैलियाँ वाराणसी में ही पुष्पित-पल्लवित हुईं जिसकी आधारशिला बुद्धू मिश्र के घराने द्वारा रखी गई| सारंगी, पखावज और शहनाई वादन में पण्डित बादल मिश्र, पण्डित भोलानाथ पाठक व नन्दलाल जी का नाम प्रारंभिक मार्गदर्शकों के रूप में लिया जा सकता है वहीँ बीसवीं सदी में इस परंपरा को विश्वस्तर पर लोकप्रियता दिलाई हिंदुस्तान के अज़ीम फ़नकार उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने| कत्थक नृत्य के विकास के लिए दुल्हाराम जी और गणेशीलाल जी के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं| चित्रकला के क्षेत्र में अपनी स्थानीय विशिष्टता और रूपरेखा के चलते वाराणसी ने आधुनिक भारत में एक अलग स्थान प्राप्त किया है| सर्वप्रथम यह नगर ही असंख्य चित्रों की विषय वस्तु बना, कंपनी स्कूल ऑफ पेंटिंग का उद्भव हुआ और नगर ने अतीत के भित्ति चित्रों को संजोए रखा| इसमें पाश्चात्य विद्वानों का भी अहम योगदान रहा है| वास्तुकला में मिश्रित शैलियाँ दिखाई पड़ती हैं जिनमें हिंदू, बौद्ध व जैन मंदिर, मस्जिदें व मकबरे, चर्च व विभिन्न घाट सम्मिलित हैं| काशी की मूर्तिकला व हस्तशिल्प का भी अपना अलग स्थान है|
वाराणसी अपने अंदर एक वैभवशाली और गौरवमय अतीत, एक दृढ संकल्प वर्तमान समेटे हुए है जो एक सुनहरे भविष्य की ओर इंगित करते हैं| वाराणसी ने इतिहास रचे हैं, वर्तमान को सहेजा और संजोया है और निश्चित ही भविष्य को मूर्त रूप देने में अपनी महती भूमिका निभाएगा| भारत जैसे महान देश की सांस्कृतिक एकता के दूत के रूप में वाराणसी ने अग्रणी रहकर न सिर्फ़ उत्तर प्रदेश बल्के समस्त देश का मस्तक गर्व से ऊँचा कर दिया है| वाराणसी ने बंधनों और वर्जनाओं को तोड़ कर नई परम्पराएं और मिसालें भी क़ायम की हैं पर इस बात का हमेशा ध्यान रखा है कि नैतिक मर्यादा न टूटने पाए| इस नगर को इसकी सम्पूर्णता में जानना, समझना और अनुभव करना ही अपने आप में एक विरल और अनुपम अनुभूति है| रहस्य और ज्ञान की परतें खोलते-खोलते लोग स्वयं ही इस नगर के एक अभिन्न अंग बनते गए| वाराणसी ने सबको उसके मूल रूप में अपनाया है, दिल खोल कर आत्मीयता का अमृत लुटाया है और लोग भी इसी के होकर रह गए| जिसने वाराणसी को जिया है वह दुनिया के किसी भी कोने में चला जाए बनारस सदैव उसके साथ-साथ चलता है, उसके अंदर मौजूद रहता है और उस व्यक्ति को जानने वालों को भी अपने दर्शन के लिए प्रेरित करता है| सही मायनों में वाराणसी अखिल भारत का प्रतिनिधि है जो पूरे देश की बहुल संस्कृति की एक सकल छवि प्रस्तुत करता है| पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्राविण, उत्कल, बंग, विन्ध्य, हिमाचल, यमुना, गंगा की राष्ट्रीय अवधारणा अगर कहीं साकार होती लगती है तो वह वाराणसी ही है| और अंततः, एक ‘अखिल भारतीय’ नगर के रूप में वाराणसी अतुल्य है, अभूतपूर्व है, अद्वितीय है|

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