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काशी, काशीति, काशीति बहुधा संस्मरजः|
न पश्यतीहि नरकान वर्त्तमाननान्वयं कृतान||
अर्थात “काशी, काशी, काशी, इस प्रकार से यदि सत् चित्त से काशी नाम का स्मरण किया जाये तो व्यक्ति के समस्त कुकृत्य विनष्ट हो जाते हैं और आत्मा परमानन्द में विलीन हो जाती है|” पिछले दो लेखों के माध्यम से हमने वाराणसी के अखिल भारतीय स्वरुप को सकलता में जानने का प्रयास किया है| प्रथम आलेख में हमने वाराणसी के विभिन्न नामों को जाना था| आइये, आज उन्हीं नामों पर चर्चा करते हैं कि इस शाश्वत नगरी को यह विभिन्न नाम मिलने के पीछे क्या कारण रहे होंगे? वाराणसी को एक नगर के रूप में जाना जाता है परन्तु अपनी समग्रता में या सिर्फ़ एक नगर मात्र से कहीं अधिक है| वाराणसी किसी तार्रुफ़ का मुहताज नहीं है और न ही किसी के अंदर इतना सामर्थ्य जो इसे परिभाषित कर सके| फिर भी इसे जानने के लिए एक व्यापक चर्चा की आवश्यकता है| वाराणसी वास्तव में उल्लेखनीय है| इसकी भव्यता अविभूत कर देती है| अपने विविध आयामों की तरह इसके विविध नाम भी हैं| हिंदुओं के लिए काशी, मध्यकालीन व्यापारियों के लिए जित्वरी, इसके अलावा महाश्मशान, अविमुक्त, आनंदकानन आदि जैसे अनेक नाम हैं जिनके पीछे कई कारण हैं| वाराणसी की अद्वितीयता एवं पुरातनता मनुष्य को चमत्कृत कर देते हैं| यह विश्वास व्याप्त है काशीवासियों में कि काशी प्राचीन है, उतनी जितने स्वयं इतिहास एवं समय|
3,000 वर्षों से भी ज़्यादा समय से वाराणसी ने यात्रियों, तीर्थयात्रियों व खोजकर्ताओं को आकृष्ट किया है| न सिर्फ़ भारत बल्कि सारी दुनिया से भी| वाराणसी एक विरोधाभासी नगर भी है| इस शहर का अनोखापन केवल भारत की समग्रता के प्रतीक से कहीं ऊपर है| अपने समकालीन शहरों यथा – एथेंस, पेकिंग, यरुशलम आदि के विपरीत यह कभी राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र नहीं रही| युगों-युगों से इसने अपनी पवित्रता को बचाए रखा है और हिंदु दर्शन के सिद्धांतों का प्रतीकात्मक रूप में प्रतिपादन किया है| ऊपर उल्लिखित अन्य शहरों से वाराणसी एक और अहम अंतर रखता है जिसका उल्लेख अवश्य किया जाना चाहिए और वह यह है कि यही एकमात्र शहर है जिसने अपनी पुरातन जीवनशैली के अनोखेपन को निरंतर बरकरार रखा है उसका क्षरण नहीं होने दिया|
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, वाराणसी को बेहतर तरीके से जानने के लिए उसे प्रदत्त नामों के पीछे छुपे रहस्य को अनावृत्त करना होगा| यह नाम स्वयं ही अपने होने के कारण को कुछ हद तक प्रकट कर देते हैं| सबसे पहले हम इस महान नगरी के प्राचीनतम नामों से प्रारंभ कर, समय के साथ आगे बढ़ते चलेंगे| जैसा कि वेदों से ले कर बाद के ग्रंथों में उल्लिखित है| शुरुआत होती है ‘काशी’ से| शाब्दिक रूप से काशी की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘काश’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है ‘ज्योतित करना अथवा होना’ और यह नगरी विशेष रूप से अपने इसी गुण के कारण जानी गई है| संत-महात्माओं से लेकर धर्मगुरुओं, साहित्यकारों व संगीतज्ञों तक ने काशी की पावन धरा पर स्वयं का साक्षात्कार किया है| केवल व्यक्ति ही नहीं लोग भी यहाँ ज्योतित हुए हैं| काशी ने भारत को ही नहीं समस्त विश्व को आलोकित किया है| पुराणों में एक और सन्दर्भ मिलता है काशी नाम पर| इसके अनुसार काशी के राजघराने में, मनु की सातवीं पीढ़ी में काश नामक एक राजा हुआ था| वह चक्रवर्ती था व उसके राज में नगर ने अत्यधिक प्रगति की और काशी कहलाया| वैदिक साहित्य में यह नाम सबसे पहले अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा में आता है| डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार, “धरती का वह भाग जो जल की अधिकता के कारण सदा ही ‘कुश’ और ‘काश’ के जंगलों से भरा रहता था, काशी कहलाया|” स्कन्द पुराण के अनुसार, यह नगर इहलोक से मोक्ष के बीच के मार्ग को प्रकाशित करता है, प्रदर्शित करता है और इसीलिए काशी कहलाता है|
आएं अब चर्चा करते हैं ‘वाराणसी’ पर| अब तक हम सामान्य रूप से यही जानते हैं कि वरुणा और असी नदियों के सम्मिलित नाम का रूप है वाराणसी| यह उल्लेख कूर्म पुराण में भी है| जाबलोपनिषद के अनुसार, ‘अविमुक्त’ (काशी का एक और नाम) क्षेत्र ‘वरणा’ और ‘नाशी’ नामक नदियों के बीच स्थित है| यहाँ वरणा को सभी भौतिक दोषों का वरण करने वाली और नाशी को इन्द्रियकृत सभी पापों का नाश करने वाली बताया गया है| यह भी कहा गया है कि यही वह ख़ास जगह है जहाँ स्वयं साक्षात् ‘रूद्र’ मृतकों के कान में ‘तारक’ मन्त्र फूंकते हैं| कुछ सन्दर्भ यह भी कहते हैं कि काशी राज्य का नाम था और वाराणसी उसकी राजधानी को कहते थे| वरणा एक वृक्ष का भी नाम है| संभवतः इसी वृक्ष से आच्छादित होने के कारण यह स्थान वाराणसी नाम से जाना गया क्योंकि प्राचीन काल में नगरों के नाम वृक्षनाम पर रखने का प्रचलन था जैसे कि कौशम्ब वृक्ष के नाम पर कौशाम्बी नगर का नाम पड़ा| बौद्ध ग्रंथों में वाराणसी के कई अन्य नामों का भी उल्लेख मिलता है जो पाली भाषा में हैं जैसे – सुदर्शन, ब्रह्मवर्तन, पुफ्फवती (पुष्पवती), मालिनी आदि| बुद्ध काल तक काशी एक धार्मिक-सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में पूर्णतः प्रतिष्ठित हो चुकी थी|
‘जित्वरी’ नाम मुख्यतः व्यापारियों के बीच प्रसिद्ध था| पतंजलि ने कहा है कि व्यापारियों को यहाँ व्यवसाय करने पर सर्वाधिक लाभ होता था (पूर्ण जय) और इसीलिए इसे जित्वरी कहते थे| अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण वाराणसी उस काल के सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यापार मार्गों के केन्द्र में था| यह नगर तत्कालीन सबसे बड़े व्यापारिक केन्द्रों में गिना जाता था| उस समय यहाँ के वस्त्र अत्यधिक विख्यात थे, बिलकुल वैसे जैसे कि आज हैं| यह व्यापार मार्ग ‘ताम्रलिप्ति’ (मिदनापुर, प. बंगाल) से प्रारंभ हो कर अफ़गानिस्तान तक पहुँचता था| बौद्ध ग्रंथों में यहाँ से होकर गुज़रने वाले कई और व्यापारिक मार्गों का भी उल्लेख है| एक मार्ग उत्तरी बिहार से होते हुए वैशाली तक जाता था| एक मार्ग पश्चिम दिशा में प्रयाग से होकर गुज़रता था| एक और मार्ग कान्यकुब्ज (कन्नौज) से होता हुआ पाञ्चाल तक जाता था| वाराणसी के वर्तमान रूप में उदय और प्रगति के पीछे इसके एक व्यापारिक केन्द्र होने ने अहम किरदार अदा किया है|
कुछ पुराणों के अनुसार, इस नगर को ‘अविमुक्त’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि शंकर ने कभी इसका परित्याग नहीं किया (अ+विमुक्त)| अविमुक्त की एक और व्युत्पत्ति है अवि (पाप) + मुक्त = अविमुक्त यानि पाप से मुक्त करने वाला|
‘आनंदकानन’ या ‘आनंदवन’ नाम स्वयं शिव द्वारा प्रदत्त माना जाता है क्यूंकि इससे उन्हें अत्यधिक आनंद की अनुभूति होती है| यही इस नगर का प्राचीनतम नाम भी है|
‘महाश्मशान’ नाम ‘मत्स्य पुराण’ व ‘पद्म पुराण’ की देन है| काशी खंड में उल्लेख किया गया है, “मृतमात्रोऽपि मुच्येत काश्यामेकेन जन्मना,” अर्थात – काशी में किसी विशेष प्रयास के बिना, मृत्यु मात्र से मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होता है|
प्रसिद्ध व लोकप्रिय नाम ‘बनारस’ और कुछ नहीं वाराणसी का ही अपभ्रंश है| यह भी कहा जाता है कि ‘एक रस है जो बना हुआ है’ (बना+रस) जो प्रतीक है यहाँ की जीवंत जीवनशैली का जो सहस्रों वर्षों से निर्बाध चली आ रही है|
शेष अगले भाग में… (क्रमशः)
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