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आख़िरी मुलाक़ात है ये आख़िरी कलाम,
चल दिए सफ़र पर लेकर तेरा ही नाम;
एक वक़्त था लम्हों में जो भूल नहीं सकता,
एक उम्र गुज़ारी थी लेकर सुबह से शाम;
मालिक से दुआ की थी क़ुबूल न हो पायी,
अहले जहां में अब है मेरा भला क्या काम;
न हो सका मुयस्सर मुझको कभी क़रार,
चलता रहा राहों में अपने जिगर को थाम;
शिकवा नहीं किसी से, किससे करूँ गिला,
जो आगाज़े दिल को मेरे ना मिला अंजाम;
अपनी ज़मीं, अपनी हवा, अपना है आसमां,
अपना वतन है यारों, उनका नहीं ग़ुलाम;
कैसी है ये ज़ुंबिश, उठते नहीं क़दम,
जज़्बाए दिल के होते, नहीं रुक सकेगा काम;
लेता हूँ विदा यारों, नहीं अलविदा कहा है,
बीते हैं दिन भी कितने, कर लूं ज़रा आराम;
ऐ’वाहिदे नादां’ इसे क्यूँ भूलता है तू,
तेरा अदब, तेरी अदा, तेरा जो है मुक़ाम;
अब वक़्त हो चला है, मंज़िल को छोड़ने का,
सफ़रे तवील ही है, मुकम्मल तेरा क़याम;
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अहले जहां = दुनिया, मुयस्सर = उपलब्ध, ज़ुम्बिश = कंपन, अदब = साहित्य,
सफ़रे तवील = लंबा सफ़र, ज़िंदगी, मुकम्मल = पूर्ण, क़याम = पड़ाव
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