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“फ़सल ख़्वाब की”

सांस्कृतिक आयाम
सांस्कृतिक आयाम
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नींद के खेतों में हम हरदम

फ़सल ख़्वाब की बोते थे,
माँ की गोद में सर रख कर हम
सारी रातें सोते थे;


आज नहीं है कोई सपना रातें
ख़ाली-ख़ाली सी,
बचपन की छोटी रातों में

सपन सजीले होते थे;


अंतरतम में प्यास दहकती किस विधि
तृप्त करूँ इसको,
ओस की बूंदों से हर सुबह हम

बोझिल पलकें धोते थे;


हर ख़्वाहिश पूरी है लेकिन फिर भी सुकूँ
नहीं अब दिल को,
तब दिल इतना बड़ा था कि हर

छोटी ख़ुशी संजोते थे;


आज ये आलम के काटो तो किसी भी
रग में ख़ून नहीं,
छोटी सी झिड़की पर तब हम
घंटों-घंटों रोते थे;


प्यार के बादल का छोटा सा टुकड़ा भी
द्रष्टव्य नहीं,

जिसकी बारिश में हम सबको

सारा वक़्त भिगोते थे;


कहाँ गई वो पौध स्नेह की, कहाँ प्रेम
की हरियाली,
कई बरस तक जिनकी ख़ातिर ये
बंजर खेत भी जोते थे;


लौट नहीं पाया वो बचपन, यौवन लक्ष
हुए क़ुर्बान,
जब घर में राहत पाकर हम
सारे रंजो-ग़म खोते थे;

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