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टूट सकता हूँ मगर झुकना नहीं मंज़ूर है,
हाँ मैं ‘आर्य’ हूँ, मुझे इस बात का ग़ुरूर है;
दंभ है पश्चिम तुझे, चुटकी में तोड़ देंगे हम,
हुंकार भर जो उठ गए, तेरा घमंड चूर है;
सांसों में मेरी संस्कृति है, वेद बहते ख़ून में,
पुराण-शास्त्र-उपनिषद, चेहरे का मेरे नूर है;
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मुल्क की आज़ादी पे जो, ख़्वाब देखा था हसीं,
हाकिम ने रौंदा इस तरह, टूटाओ चकनाचूर है;
फ़रेब और मक्कारियों में सियासत ढल गई,
सरपरस्तों का यही अब चलन और दस्तूर है;
भ्रष्टाचार-ज़ात-पात, क्षेत्रवाद घाव हैं,
इनका जो संगम, है हुआ, वो देश का नासूर है;
देश की प्रगति का ज़िम्मा, जिनके काँधे आज है,
वो घिनौने-नीच कितने, कुटिल हैं और क्रूर हैं;
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टुकड़ों में है बंटा हुआ, ये समाज खण्ड-खण्ड है,
बिन एकता के भाव के, हर शख़्स ही मजबूर है;
‘भारत’ के नवनिर्माण में, हम सबका योगदान हो,
संकल्प ले हर नागरिक, सर मेरे अब ये फ़ितूर है;
सत्ता के मद में चूर वो, हम राष्ट्रवाद पर अडिग,
जागो-उठो, आगे बढ़ो, दिल्ली नहीं अब दूर है;
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