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हारा ख़ुद को पर तुझे मैं जीत ना सका
हर लम्हा है अब तो देखो मेरी सांस सा रुका;
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सोचता नहीं था मैं पर जब भी पूछा सोच कर
दे दिया उसने मुझे वही जवाब एक टका;
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है मुक़द्दस प्यार का जज़्बा ये मेरा ऐ हबीब
क्यूंकि इसमें है भरा सिर्फ़ो सिर्फ़ ज़िकर तेरा;
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ज़िंदगी में तय किये हैं मुक़ां कई चलते हुए
इसलिए लगता है तुमको शख़्स ये थोड़ा थका;
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कुछ न कुछ दे जाएँगे हम ख़ाक़ हो कर भी तुझे
जैसे पिस कर भी, हथेली, सुर्ख़ बनाए हिना;
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है धुआँ-गर्दो ग़ुबार चार सू मुश्किल बड़ी
है ज़रुरी साँस लेना, चाहिए ताज़ा हवा;
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बेसबब भटक रहा हूँ मैं तुझी को ढूँढता
काश बता देती मुझे तू ज़िंदगी अपना पता;
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देखा तुझको भी बहुत और शानो शौक़त भी तेरी
अब दिखाना है जो मुझको, तू अपनी दोस्ती दिखा;
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हाँ गुज़ारी ज़िंदगी, है बहुत मिज़ाज से मगर
शौक़ बचपन का अभी है एक छोटा सा बचा;
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बस भी कर कोई तवज्जह देने वाला है नहीं
राग जो छेड़ा है तूने, है सरासर बेतुका;
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दिल दिया उसको ही मैंने, और जाँ भी नाम की
मुझको लेकिन इतने पर भी कहता है वो बेवफ़ा;
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शमअ़ जलती है घरों में, रास्ते हैं स्याह क्यूँ
इन अंधेरे रास्तों में रौशन करो कोई दिया;
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जिसको समझा सरपरस्त सर-ता-पा* ‘वाहिद’ यहाँ
वो तमाशा देखता है, मेरी बस्ती को जला;
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*सर-ता-पा = सर से पैर तक, शुरू से आख़िर तक
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